(पार्ट __1  )_   
@ (चिड़िया  की कविता )


Rakesh Kumar Verma 




पीपल की ऊंची डाली 🌳 पर बैठी है। 
तुम्हे ज्ञात  🏵️अपनी बोली मैं क्या संदेश सुनाती है 


चिड़ियां बैठी 🐧 प्रेम प्रीति कि रोही हमे सिखालती हैं
वह जग के बंदी मानव 🧍को मुक्ति मंत्रा बतलाती है

वन में जितने पंछी 🐧🕊️है खंजन. कपोत  , चातक कोकिल।
काक , हंसे , शुक आदि , वास करते सब आपस 👯🧑‍🤝‍🧑👭मै हिलमिल।

सब मिल _ जुलकर रहते हैं 👭🧑‍🤝‍🧑👯 सब मिल__ जुलकर खाते हैं।  आपस ही उनका घर है , जहां चाहते जाते हैं।            
 
 
उनके मन में लोभ नही ❌है, 
पाप नहीं परवाह ❌नहीं।       
                                जग का सारा माल हड़पकर जीने को भी चाह नही❌ ।
                    जो मिलता है   , अपने श्रम से 🤱 उतना भर ले लेते हैं । 
            बच जाता तो आरो 👪 के हित उसे छोड़ वे देते हैं 🍎
सीमाहीन गगन में उड़ते 🐧निर्भर   विचरण करते हैं ।  नही कमाई से ओरो  की अपना घर 🏫वे भरते हैं ।

वे कहते हैं __  सीखो, तुम स्वच्छंद ओर किंयो तुमने डाली🌳  है बेड़ी पग में ।
                        पीपल की डाली🌳  पर  चिड़िया अहि सुनाती आती है।   बैठी घड़ी🕜।  भर , हमे चकितकर गाकर फिर उड़ जाती हैं।🐧  



 2  ( पार्ट__ 2 )__ @ 




तुम कल्पना करो।  )।      


 तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो, तुम कल्पना करो।

अब घिस गई समाज को तमाम नीतियां   अब घिस गई मनुष्य 🧍 की अतीत। रिटिया हैं दे रही चुनौतियां निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए तुम कल्पना करो ,। नवीन कल्पना करो ,। तुम कल्पना करो।  

जंजीर टूटती कभी न अक्षू _ घर से दुःख दर्द। से दूर भागते नही दुलार से हटती न दासता पुकार से गुहार से इस गड्डी __ तीर बैठ आज राष्ट्र _ शक्ति की तुम कमाना करो , किशोर कामना करो ,।   तुम कल्पना करो।  

जो तुम गए, स्वदेश की जवानियो गई चितौड़ के प्रताप की कहानियां गई आजाद देस _ रक्त की रवानिया गई अब सूर्य __ चंद्र से स्मिंड्री त्रिद्री सिंद्री को तुम यायना करो।  दरिद्र याचना करें  तुम कल्पना करो ।   





 (पार्ट __ 3 ) __   

 (बाल __लीला )।  






मैया मोरी , में नही माखन खायो ।  
भोर भाए गीयन  के पिछे , मघुवन मोहि पठायो। 
चार पहर बांसीवाट भटकियों , सांझ परे घर आयो।


मै बालक बहियान को छोटी केही विधि पायो।
ग्वाल __ बाल सब बैर परे है , बरबस मुख लपटायो।


तू जननी मन कि अति भोरी , इनके कहि प्तियाओ।
जिर तेरे कुछ भेद उपजिहे , जानि परायों जयो।


यह, ली अपनी लकुटी कमरिया, बहुतही नाच मचायो।
सूरदास, तब बिहांसी ज्जासोड़ा, लें उर कंठ लगायो।



(पार्ट __4 ) 

(रहीम के दोहे। )






 1 : _ जो रहीम उत्तम प्रकृति , का करी सकत कुसंग ।
चंदन विष व्याप्त नहि , लपटे राहत भुजंग।

2 : _   रहिमन निज मन की वाय्था , मन ही रखो गोय।
सुनी अथिलेहे लोग  सब, बांटी न लहे कोय।

3 : _।  रहिमन धागा प्रेम का , मत तोरेऊ चटकाए।
जोड़े से फिर न जुरे , जूरे गाँठी पूरी जाय।


4 :_। ट्रूवार फल नहि खात है , सर्वर पियह्ही न पानी।
कही रहीम पर काज हिट , संपत्ति सनचाही सूजन।


5 : _। रहीम देखे बड़ेगे को , लाधू न दिजे   दारी ।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारी।।


6 : _   रहिमन वे नर मर चुके, हैं  , जे कन्हू मंगाना जाहि। उतने पहिले वे मुई, जिन मुख निकसत नाही ।।


7 : __।   यो रहीम सुख होते हैं , उपकारी के संग।
बटनवेयर को लगे , ज्यों मेहंदी का रंग।।

 

8 : __।   कराज धीरे होते हैं, काहे होते आदिर समय पाई  ट्रूवर फले, केतक सोंचो नीर ।। 



  Rakesh Kumar __ 11 _ Aug _ 2022 
  


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट